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नई ‘भारतीय-भाषा’ बनाइए। भाषा का झगड़ा मिटाईए।

नई दिल्ली [भारत], 29 जनवरी : भारत की राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने हेतु संदेश देते हुए, वर्तमान नामधारी मुखी ठाकुर दलीप सिंघ जी ने कहा कि भारत को “विश्व गुरु” बनाने के लिए तथा राष्ट्र की तरक्की करने के लिए; हिन्दी तथा दक्षिणी भाषाओं का झगड़ा मिटाने की आवश्यकता है; तभी भारतवासी एक हो कर, उन्नति कर सकते हैं। सब जानते हैं कि जहां पर भी झगड़े होते हैं; वहां पर उन्नति रुक जाती है तथा देश की हानि होती है। इस कारण, भारतीयों में एकता करवाने के लिए, भारतीय जनता को आगे आने की आवश्यकता है। राष्ट्र की तरक्की करने के लिए, झगड़े मिटाकर एकता होनी चाहिए।
हिन्दी तथा अन्य भाषाओं का आपसी झगड़ा मिटाने के लिए, नामधारी ठाकुर जी ने सर्वोत्तम व सरल उपाय बताया कि सभी भारतीय आपस में मिल कर, भारत में उपजी भाषाओं के शब्द मिला कर, एक नई भाषा बनाएं। जैसे: संस्कृत, हिंदी, मलयालम, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, बंगाली आदि। इस नई भाषा में उर्दू, फारसी जैसी विदेशी भाषाएं, जिन की लिपि तथा मूल विदेशी है: उन के शब्द शामिल नहीं किए जाएंगे। उस भाषा का नाम “भारतीय” भाषा रखें। उस “भारतीय” भाषा को धीरे-धीरे सभी अपना लें: परंतु, भाषा पर झगड़ा करना सदा के लिए बंद कर दें। सभी भारतीय भाषाओं के शब्द सम्मिलित होने के कारण, इस नई भाषा पर किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार से, पूरे भारत की एक ही भाषा होगी और वह राष्ट्रभाषा भी बन जाएगी। परंतु, इस के लिए, जनता की आपसी सहमति अत्यंत आवश्यक है।
नामधारी ठाकुर जी ने भारतवासियों को प्रेरित करते हुए कहा कि भाषाओं का झगड़ा समाप्त करने का कार्य, भारतीय जनता ही आपस में मिल कर, कर सकती है; नेता लोग नहीं कर सकते। क्योंकि, जनता को तो झगड़ा मिटा कर शांति स्थापित करनी है तथा देश की तरक्की करनी है। इस लिए, ठाकुर जी ने विनती करते हुए कहा “आइए! हम सब मिलकर एक नई “भारतीय भाषा का आविष्कार करें, जिस में सभी भारतीय भाषाओं के शब्द सम्मिलित हों”।
हिंदी, तामिल, मलयालम, कन्नड़, उड़िया का झगड़ा मिटाइए।
भारतीय भाषाएं मिलाकर नई “भारतीय- भाषा” बनाइए।
ठाकुर जी ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा कि सभी को ज्ञात है कि स्वतंत्रता के उपरांत, आज तक भारत की कोई भी, एक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न 1947 से ही सभी पार्टियों की सरकारें करती रही हैं, परंतु दक्षिण वाले, हिंदी को प्रवान नहीं करते हैं। सहमति ना होने के कारण ही, किसी को भी सफलता प्राप्त नहीं हुई। विदेशी भाषा ‘अंग्रेजी’ का प्रयोग कर के, सभी प्रांतों के आपसी पत्राचार होते हैं तथा सभी न्यायालयों में आज भी अंग्रेजी से ही कार्य होता है। विदेशी गुलामी का कलंक चिन्ह “अंग्रेजी भाषा” को, जब तक भारतवासी नहीं छोड़ते; तब तक सही रूप में स्वतंत्र नहीं हो सकते। विदेशी भाषा को पूर्ण रूप से त्यागने के लिए, भारतीयों को अपनी ही एक सर्वमान्य (सभी को प्रवान होने वाली) राष्ट्रभाषा चाहिए। जिन दक्षिणी प्रांतों के लोग, हिंदी को राष्ट्रभाषा प्रवान नहीं करते; उन सभी दक्षिणी प्रांतों की भाषाओं में बहुत शब्द ऐसे हैं, जो हिंदी, संस्कृत तथा बाकी भारतीय भाषाओं से भी मिलते हैं। जैसे: करुणा, गुरु, धर्म, दया, नगर, माँ, शास्त्र, अर्थ, रक्त, वर्ष, तिथि, लिंग, संधि, स्वतंत्र आदि। इस कारण, इन सभी भाषाओं के शब्दों को मिला कर, एक नई “भारतीय भाषा” बन सकती है, जो सर्वमान्य हो सकती है। जब सब लोग दक्षिणी प्रांतों की भाषाओं को, नई “भारतीय भाषा” में स्थान देंगे और उन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग, हिंदी-भाषी लोग भी आरंभ कर देंगे: तो वह लोग भी उत्तरी-भाषाओं के तथा हिंदी के शब्दों को अपनाना आरंभ कर देंगे।
अंत में, नामधारी ठाकुर दलीप सिंघ जी ने कहा कि यदि नई “भारतीय भाषा” बना कर, उस को लागू नहीं किया गया, तो भारत में अंग्रेजों की गुलामी, उनकी भाषा के रूप में, सदा के लिए चलती ही रहेगी। इस लिए, भारतवासियों को विचार करना चाहिए कि भारत में गुलामी का कलंक चिन्ह: ‘विदेशी-अंग्रेजी-भाषा’ रखनी है: या उस ‘गुलामी-चिन्ह’ से मुक्त हो कर, अपनी नई भाषा बना कर; पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना है।
जय भारत।
नामधारी सिख
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रतनदीप सिंघ नामधारी +91 9650066108
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शिव मंदिर में मोरारी बापू की पूजा: एक न्यायसंगत दृष्टिकोण

नई दिल्ली : काशी, भारत का आध्यात्मिक केंद्र, जहाँ धर्म, संस्कृति और परंपराओं का सम्मान होता है, वहाँ हाल ही में एक विवाद ने जनमानस में चर्चा जगाई है। प्रख्यात रामचरितमानस के व्याख्याता और आध्यात्मिक गुरु मोरारी बापू, जिनकी पत्नी का कुछ दिन पहले निधन हुआ, उन्होंने काशी के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना की और रामकथा गायन किया। इस घटना को लेकर कुछ लोगों ने विरोध व्यक्त किया, उनका कहना है कि सूतक के समय में धार्मिक कार्य नहीं करने चाहिए। परंतु, यह लेख मोरारी बापू के निर्णय का समर्थन करता है और अन्य संतों के उदाहरणों द्वारा उसकी पीछे के आध्यात्मिक तथा मानवीय पहलुओं को प्रस्तुत करता है।
मोरारी बापू एक ऐसे संत हैं, जिन्होंने छह दशकों से भी अधिक समय से रामचरितमानस के माध्यम से सत्य, प्रेम और करुणा का संदेश विश्वभर में फैलाया है। उनकी कथाओं ने लाखों लोगों के जीवन को प्रेरणा दी है। अपनी पत्नी के निधन के बाद भी उन्होंने अपने आध्यात्मिक कर्तव्य को जारी रखने का निर्णय लिया, जो उनकी निष्ठा और धर्म के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है। हिंदू धर्म में सूतक की परंपरा अलग-अलग समुदायों में विभिन्न तरीकों से निभाई जाती है, और इसका पालन व्यक्तिगत संदर्भ पर निर्भर करता है। मोरारी बापू ने शिव मंदिर में पूजा करके किसी परंपरा का उल्लंघन नहीं किया है; बल्कि, उन्होंने एक संत के रूप में अपने धर्म का पालन किया, जिसमें भगवान की भक्ति और लोगों के कल्याण का समावेश होता है।
हिंदू धर्म में शिव की पूजा मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र को स्वीकार करने का प्रतीक है। शिव, जिन्हें महादेव के रूप में जाना जाता है, वे जीवन और मृत्यु दोनों के स्वामी हैं। हमें यह समझना चाहिए कि सूतक का समयकाल शोक और चिंतन का समय होता है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति भगवान की भक्ति से वंचित रहे।
ऐसा ही एक उदाहरण गुजरात के महान संत नरसिंह मेहता का है। नरसिंह मेहता ने अपने जीवन में अनेक दुख सहे, जिसमें उनके परिवार के सदस्यों का निधन भी शामिल था। फिर भी, वे भगवान कृष्ण की भक्ति में लीन रहे और अपने भजनों द्वारा लोगों को प्रेरणा दी। उनका प्रसिद्ध भजन “वैष्णव जन तो” आज भी मानवता का संदेश देता है। नरसिंह मेहता ने दुख की घड़ियों में भी भक्ति को नहीं छोड़ा, जो मोरारी बापू के निर्णय के साथ समानता दर्शाता है।
दूसरा उदाहरण संत जलारामबापा का है, जिन्होंने गुजरात के वीरपुर में अन्नदान की परंपरा स्थापित की। जलारामबापा ने अपने जीवन में अनेक चुनौतियों का सामना किया, लेकिन उन्होंने कभी भगवान राम की सेवा और लोगों की मदद करना बंद नहीं किया। एक बार, जब उनके एक करीबी संबंधी का निधन हुआ, तब भी उन्होंने अन्नदान जारी रखा, क्योंकि उनका मानना था कि सेवा भगवान की भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है। मोरारी बापू का रामकथा जारी रखना, ऐसी ही भक्ति और सेवा की भावना दर्शाता है।
मोरारी बापू के विरोध के पीछे का कारण कट्टरपंथ हो सकता है, लेकिन, हमें भूलना नहीं चाहिए कि हिंदू धर्म में लचीलापन और व्यक्तिगत आध्यात्मिकता को स्थान है। उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के दौरान शांति का संदेश दिया, उत्तराखंड के बाढ़ पीड़ितों को राहत पहुंचाई,और युवक युवतियों के विवाह के लिए आर्थिक मदद की। इनकी सनातनके प्रति निष्ठा पर संदेह करना हमारी समझ की सीमा दर्शाता है। मोरारी बापू की कथाएँ केवल धार्मिक विधि नहीं हैं, बल्कि वे लोगों को नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन देती हैं। उनके शोक की घड़ियों में भी कथा जारी रखना यह दर्शाता है कि वे व्यक्तिगत दुख को एक तरफ रखकर समाज के हित के लिए कार्यरत रहे। यह एक सच्चे संत की निशानी है, जो दुख को भक्ति और सेवा में रूपांतरित करते हैं। अंत में, हमें मोरारी बापू के निर्णय को समझना चाहिए और नरसिंह मेहता तथा जलारामबापा जैसे संतों के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। विरोध करने के बजाय, उनकी भक्ति और सेवा का सम्मान करें। मोरारी बापू का जीवन एक उदाहरण है कि धर्म केवल नियमों का पालन नहीं है, बल्कि एक भावना है जो मानवता को उन्नत करती है।
अस्वीकरण: उपर्युक्त विचार लेखक के निजी हैं और प्रकाशन की राय को प्रतिबिंबित नहीं करते।
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स्वच्छता, पवित्रता, प्रसन्नता, स्वतंत्रता और असंगता, यही सच्चे साधु के पंचतत्व हैं: मोरारी बापू

अहमदाबाद (गुजरात), जून 16 :लगाजरडा में श्रीमती नर्मदाबा के भंडारे में विमान दुर्घटना के पीड़ितों को श्रद्धांजलि के साथ मोरारी बापू ने संतों–महंतों की उपस्थिति में व्यक्त किए भाव।
दिनांक 13 जून की संध्या को तलगाजरडा में प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु और राम कथा वाचक मोरारी बापू की धर्मपत्नी श्रीमती नर्मदाबा के भंडारे के अवसर पर, संतों और महंतों की उपस्थिति में बापू ने सभी के प्रति अपनी भावनाएँ प्रकट कीं और कहा कि स्वच्छता, पवित्रता, प्रसन्नता, स्वतंत्रता और असंगता, यही साधु के पंचतत्व हैं।
अहमदाबाद विमान दुर्घटना की पीड़ा और दिवंगत आत्माओं को श्रद्धांजलि देते हुए, पूज्य मोरारी बापू ने एक आदर्श साधु की परिभाषा देते हुए कहा कि ये पंच गुण एक सच्चे साधु की पहचान हैं। उन्होंने प्रत्येक तत्व पर संक्षिप्त रूप से प्रकाश डाला और जोड़ा कि साधु लाभ के लिए नहीं, बल्कि शुभ के लिए कार्य करता है। उन्होंने यह भी कहा कि समाज द्वारा साधु के प्रति श्रद्धा रहती है, परंतु साधु को सहनशील भी होना पड़ता है।
इस भंडारे में श्री सतुआ बाबा, श्री अंशु बापू, श्री दुर्गादास बापू, श्री ललितकिशोर महाराज, श्री जानकीदास बापू, श्री राम बालकदासजी बापू, श्री निर्मला बा, श्री निजानंदजी स्वामी, श्री दलपतराम पधियारजी, श्री दयागीरी बापू, श्री जयदेवदासजी, श्री राजेंद्रप्रसाद शास्त्री, श्री रामेश्वरदासजी हरियाणी, श्री भक्तिराम बापू, श्री घनश्याम बापू आदि अनेक संत, महंत और कथाकार उपस्थित थे।
भंडारे की विधि में मोरारी बापू और चित्रकूटधाम परिवार के समन्वय से सभी ने प्रार्थना और प्रसाद ग्रहण किया। विमान दुर्घटना को ध्यान में रखते हुए संतवाणी के सभी कार्यक्रम स्थगित कर दिए गए हैं। पूज्य मोरारी बापू ने इस कार्यक्रम को विमान दुर्घटना में दिवंगत आत्माओं को समर्पित किया।
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