लाइफस्टाइल
कर्नल (मानद) पार्वती जांगिड़ बनी हार्वर्ड 100 सूची की सबसे युवा महिला, विश्व में तीसरी रैंक हासिल

दिल्ली : अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में जारी की गई दुनिया की 100 असाधारण महिलाओं की सूची इस प्रतिष्ठित सूचि में भारत से पीवी सिंधु, साध्वी ऋतम्भरा, माता अमृतानंदमयी, पार्वती जांगिड़, पूर्णिमा देवी बर्मन, नीता अम्बानी, रौशनी नाडर मल्होत्रा, किरण मजूमदार, सुधा मूर्ति, डॉ अंजलि अग्रवाल को मिली जगह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 के अवसर पर, हार्वर्ड 100 ने सुश्री पार्वती जांगिड़ को “दुनिया की सबसे असाधारण महिलाओं” में से एक के रूप में मान्यता दी है। यह वैश्विक रैंकिंग उन बदलाव लाने वालों को सम्मानित करती है जो दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपनी शक्ति, प्रभाव, पूंजी और समय का उपयोग कर रहे हैं।
सुश्री जांगिड़ को 9,650 महिलाओं के पूल से चुना गया और वह हार्वर्ड 100 सूची में शामिल होने वाली दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला हैं। वह एक सामाजिक कार्यकर्ता और परोपकारी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक सुधार और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया है।
सुश्री जांगिड़ का जन्म भारत–पाक सीमा के पास बाड़मेर के एक दूरदराज सीमान्त गांव गागरिया में हुआ था। उन्होंने कम उम्र में ही अपने पिता को खो दिया और परिवार की देखभाल करने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्होंने बाल विवाह के अभिशाप के खिलाफ भी संघर्ष किया। इन चुनौतियों के बावजूद, सुश्री जांगिड़ सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में दृढ़ रहीं।
सुश्री जांगिड़ भारतीय रक्षा बलों से भी जुड़ी हुई हैं। वह सैनिकों और उनके परिवारों के कल्याण के लिए अथक प्रयास करती हैं। भारतीय रक्षा बलों के साथ उनका जुड़ाव किसी असाधारण से कम नहीं है। पार्वती ने सैनिकों के साथ एक गहरा रिश्ता बनाया है, उनके बलिदानों और उनके सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों को पहचाना है। लाखों रक्षा कर्मियों को अपने हाथ से बने रक्षा सूत्र बांधने की उनकी पहल, बहन के प्यार और समर्थन का एक संकेत, गहराई से प्रतिध्वनित हुई है, अवसाद से लड़ने और अपनेपन की भावना को बढ़ावा देने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में काम कर रही है। सच्ची सहानुभूति से पैदा हुए इस कार्य ने लाखों लोगों के जीवन को छुआ है, जिससे उन्हें “सैनिकों की बहन“, “बीएसएफ की बहन“, “हिमवीर की बहन“, “असम राइफल्स की बहन” और “तटरक्षक की बहन” जैसे महान खिताब मिले हैं – ये खिताब उन्हें उन्हीं बलों द्वारा दिए गए हैं जिनकी वे सेवा करती हैं। उनके समर्पण को और मजबूत करते हुए, उन्हें CGIM मोल्दोवा द्वारा कर्नल की मानद रैंक से सम्मानित किया गया, जो उनके असाधारण योगदान की एक अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति है।
पार्वती जांगिड़ युवा संसद, भारत की चेयरपर्सन तथा द रिपब्लिक ऑफ़ वीमेन की इलेक्टेड प्रेजिडेंट के रूप में निःस्वार्थ सेवा कार्य कर रही है।
हार्वर्ड 100 सूची में पार्वती को दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला के रूप में शामिल किया गया है, जो कम उम्र में समाज पर उनके गहन प्रभाव का प्रमाण है। मेलिंडा फ्रेंच गेट्स, उर्सुला वॉन डेर लेयेन और पीवी सिंधु, सुसान ली, लॉरेन पॉवेल जॉब्स, जूलिया गिलार्ड, जियोर्जिया मेलोनी, दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा, नीता अंबानी, माता अमृतानंदमयी आदि जैसे अन्य वैश्विक आइकन के साथ इस सूची में उनका शामिल होना उनके अथक प्रयासों और बदलाव को प्रेरित करने की उनकी क्षमता की वैश्विक मान्यता को रेखांकित करता है।
सुश्री जांगिड़ की जीवन कहानी लचीलापन और दृढ़ संकल्प की एक प्रेरणादायक जीवंत कहानी है। वह उन सभी के लिए एक रोल मॉडल हैं जो स्वयं में तथा दुनिया में सार्थक बदलाव लाना चाहते हैं।
हार्वर्ड 100 के बारे में :
हार्वर्ड 100 बदलाव लाने वाली महिलाओं की वैश्विक रैंकिंग है। यह उन नेताओं को मान्यता देता है जो दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपनी शक्ति और प्रभाव का उपयोग कर रहे हैं। हार्वर्ड 100 सूची में असाधारण महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं और परोपकारी लोगों को मान्यता दी गई है जो समाज को बदल रही हैं और दुनिया को बदल रही हैं।
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ध्यानगुरु रघुनाथ येमूल गुरुजी की दृष्टि से आषाढ़ की यात्राएँ : भक्ति, ऊर्जा और पर्यावरण का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक समन्वय

आषाढ़ की पालखी और जगन्नाथ रथ यात्रा: गोवर्धन यात्रा, कांवड़ यात्रा और ओंकारेश्वर यात्रा के माध्यम से आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और पर्यावरणीय संनाद का अनूठा संगम
जैसे ही मानसून भारत भूमि पर जीवनदायी ऊर्जा के साथ उतरता है, वैसे ही आषाढ़ (जून-जुलाई) का पवित्र महीना देश की आध्यात्मिक धड़कन बन जाता है। महाराष्ट्र की पालखी वारी और ओडिशा की जगन्नाथ रथ यात्रा जैसी दो भव्य यात्राएँ इस मास को अनुपम गरिमा प्रदान करती हैं। प्रसिद्ध ध्यान साधक, आध्यात्मिक शोधकर्ता ध्यानगुरु रघुनाथ येमूल गुरुजी इन प्राचीन परंपराओं के गूढ़ और बहुस्तरीय महत्व को आधुनिक विज्ञान, समग्र चिकित्सा और पर्यावरणीय संतुलन के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करते हैं।
इस अवसर पर ध्यानगुरु रघुनाथ गुरुजी कहते हैं, “आषाढ़ की यात्राएँ केवल श्रद्धा का प्रदर्शन नहीं, बल्कि जीवंत उपचार प्रणाली हैं, जो मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा को प्रकृति की लय से समरस करती हैं। जब हजारों लोग एक साथ भक्ति में चलते हैं, तो वे ऐसी शुद्ध सामूहिक ऊर्जा उत्पन्न करते हैं जो आत्मा के साथ-साथ भूमि, वायुमंडल और हमारे चारों ओर की सूक्ष्म तरंगों को भी शुद्ध करती है। ये परंपराएँ भारत का जीवंत विज्ञान हैं, जहाँ आध्यात्मिकता, ऋतु ज्ञान और आंतरिक परिवर्तन एक साथ, एक पवित्र कदम के रूप में आगे बढ़ते हैं।”
आषाढ़ी एकादशी पर समापन वाली ये यात्राएँ मानसून की शुरुआत में होती हैं — जब पृथ्वी की ऊर्जा चरम पर होती है, नदियाँ उफान पर होती हैं और प्रकृति जीवन से भरपूर होती है। आयुर्वेद और प्राचीन भारतीय परंपराओं के अनुसार यह समय ब्रह्मांडीय और पर्यावरणीय ऊर्जा को आत्मसात करने के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
ध्यानगुरु गुरुजी बताते हैं कि बारिश के साथ नंगे पाँव चलना केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक रूप से भी अत्यंत प्रभावशाली है। हार्टमैथ इंस्टिट्यूट और न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ. एंड्र्यू न्यूबर्ग के शोधों से यह प्रमाणित होता है कि सामूहिक भक्ति में चलना विद्युत चुंबकीय संतुलन उत्पन्न करता है, तनाव घटाता है और मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है। साथ ही, नंगे पाँव चलने से शरीर के 60 से अधिक एक्यूप्रेशर बिंदु सक्रिय होते हैं, जो अंगों को नवजीवन प्रदान करते हैं और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं।
इन यात्राओं का महत्व केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय स्तर पर भी है। लाखों लोग जब पैदल चलते हैं, तो वाहन-प्रदूषण घटता है और मनुष्य व प्रकृति के बीच का पवित्र संबंध और भी प्रगाढ़ होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और आयुर्वेद के अनुसार, बारिश में चलना लसीका तंत्र (lymphatic system), प्रतिरक्षा तंत्र और तंत्रिका संतुलन को सक्रिय करता है।
स्कंद पुराण और नाथ संप्रदाय जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी इन यात्राओं की आध्यात्मिक और शारीरिक शुद्धिकरण शक्ति का उल्लेख मिलता है। आज यही प्राचीन ज्ञान आधुनिक अनुसंधान संस्थानों जैसे IIT खड़गपुर और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल द्वारा भी प्रमाणित किया जा रहा है।
ध्यानगुरु रघुनाथ येमूल गुरुजी का यह संदेश 21वीं सदी में इन प्राचीन आध्यात्मिक परंपराओं को नई प्रासंगिकता देता है। आज के समय में, जब विश्व असंतुलन, मानसिक अलगाव और पारिस्थितिक संकट से जूझ रहा है, ये सामूहिक यात्राएँ सामूहिक चेतना, भावनात्मक उपचार और पर्यावरणीय पुनर्स्थापन की दिशा में एक कदम हैं।
इस आषाढ़ में ध्यानगुरु रघुनाथ गुरुजी की शिक्षाएँ हमें याद दिलाती हैं कि मिलकर भक्ति में चलना केवल ईश्वर को अर्पण नहीं, बल्कि संतुलन, समरसता और समग्र स्वास्थ्य की ओर लौटने की एक यात्रा है।
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यदि भारत ने विश्व पर इंग्लैंड की तरह साम्राज्य स्थापित किया होता! (भाग–3) – ठाकुर दलीप सिंघ जी

भारत ने किसी भी देश को गुलाम बना कर, इंग्लैंड की तरह अपना साम्राज्य स्थापित नहीं किया। भारत की धर्मपरायणता, नैतिकता, सहिष्णुता, दयालुता, संयम आदि के विपरीत; जिन अंग्रेज़ों ने हर प्रकार की अनैतिकता, कपट, क्रूरता आदि का उपयोग कर के विश्व पर साम्राज्य स्थापित किया: उन की भाषा ‘अंग्रेज़ी’ आज विश्व में तो फैल ही गई है। अपितु, भारत में भी लोग अपनी मातृ-भाषा छोड़ कर, विदेशी अत्याचारी अंग्रेज़ों की भाषा ही अपनाने लगे हैं। भारतीय भाषाएं (जो कि पूरे विश्व में सर्वोत्तम हैं); अपनी मातृभूमि भारत में ही आज लुप्त होती जा रही हैं।
भारतीयों की धार्मिक व आधारहीन सहनशीलता तथा नैतिकता का कड़वा फल, भारतवासियों को तथा भारत को प्रत्यक्ष रूप से यह मिल रहा है कि आज भारत सरकार के सभी विशेष कार्य; किसी भी भारतीय भाषा में नहीं होते, अपितु विदेशी भाषा ‘अंग्रेज़ी’ में होते हैं। भारतीय न्यायालयों में सभी लिखत–पढ़त भी अंग्रेज़ी भाषा में ही होती है। यहाँ तक कि जिस को अंग्रेज़ी न आती हो, भारतीय भाषा का बड़ा विद्वान होते हुए भी उसको अनपढ़ माना जाता है। हालात इतनी बुरी है कि अपने देश को ‘भारत’ कहने में भी हमें शर्म आती है। परंतु, ‘इंडिया’ कहने से गर्व अनुभव होता है। यदि भारत ने विश्व पर इंग्लैंड की तरह अपना साम्राज्य स्थापित किया होता, तो भारत कभी भी ‘हिंदुस्तान’ या ‘इंडिया’ न बनता, सदैव ‘भारत’ ही रहता।
आज भारतीय भाषाओं में तथा जनता की बोलचाल में उर्दू, फारसी, अरबी, इंग्लिश आदि विदेशी भाषाओं के शब्दों का, अवचेतन मन से ही अधिक उपयोग हो रहा है। यदि भारत ने विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया होता, तो आज इंग्लैंड सहित पूरे विश्व की विदेशी भाषाओं में भारतीय भाषा के शब्द तो उपयोग होने ही थे; सम्पूर्ण विश्व की जनता भी अपनी बोलचाल में भारतीय शब्दों का उपयोग कर के गर्व महसूस करती, जिस तरह जनता आज अंग्रेज़ी के शब्दों का उपयोग कर के गर्व महसूस करती है।
यदि भारत ने विश्व पर इंग्लैंड की तरह अपना साम्राज्य स्थापित किया होता, तो हम भारतीय भी विदेशी भाषाओं के शब्दों से अपने नाम कभी भी ना रखते, जैसे गुलाम रहने के कारण, आज हम भारतीय लोग, विदेशी भाषाओं में अपने नाम रख कर, उन नामों पर गर्व करते हैं, उदाहरण स्वरूप: करनैल सिंघ, जरनैल सिंघ, हनी, लक्की, लवली, जैसमीन आदि अंग्रेज़ी के और हाकम सिंघ, साहिब सिंघ, इबादत कौर, आदि फारसी के नाम हैं। स्थिति इतनी गंभीर है कि भारतीय लोग अपने नाम का सही उच्चारण छोड़ कर, विदेशियों की सहूलत के अनुरूप अपने ही नाम का गलत उच्चारण आरंभ कर देते हैं। जैसे सिंघ को सैम, ढिल्लों को ढिलन, हरभेज को हैरी, गुरभेज को गैरी आदि।
इतना ही नहीं, आज हम भारतीय भाषा में रचे गए नामों का अपभ्रंश व रूपांतरण करके, उन नामों को अंग्रेज़ी में उच्चारण करने लगे हैं। जैसे: भीम राव अंबेदकर को बी.आर. अंबेडकर, महिंदर सिंह धोनी को एम.एस. धोनी, कोच्चेरी रामण नारायणन को के.आर. नारायणन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आर.एस.एस., मध्यप्रदेश को एम.पी., दूरदर्शन को डी.डी. आदि। और तो और, भारतीयों ने अमृतसर के ‘हरिमंदिर’ को ‘गोल्डन टैंपल’, मोढेरा के ‘सूर्य मंदिर’ को ‘सन्न टैंपल’, लाल किले को ‘रैड्ड फोर्ट; आदि कहना आरंभ कर दिया है। जब कि, वैटीकन ‘सेंट पीटर्स बेसिलिका’ जैसे बड़े गिरजा घरों का नाम, किसी भी भारतीय भाषा के अनुसार नहीं बदला जाता। भारत में भी केवल भारतीय मंदिरों के नाम का ही अंग्रेजी-कर्ण कर के; नाम परिवर्तित किया जाता हैं। परंतु, ईसाइयों के गिरजाघरों के नाम का हिन्दी-कर्ण नहीं किया जाता। जैसे: सेंट पॉल कैथेड्रल चर्च, बेसिलिका ऑफ बॉम जीसस चर्च आदिक गिरजाघरों का नाम बदल कर, किसी भी भारतीय भाषा के अनुसार नहीं लिया जाता।
इस प्रकार, हम भारतीयों ने भारतीय भाषा में रचे नामों का अंग्रेज़ीकर्ण कर दिया है। यदि भारत ने इंग्लैंड की तरह विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया होता, तो भारतीय लोग विदेशी भाषाओं में अपने नाम न रखते तथा भारतीय भाषाओं के शब्दों व नामों का रूपांतरण व अपभ्रंश कर के अंग्रेजी में उच्चारण न करते। पूरे विश्व के लोग, भारतीय भाषा में अपने नाम रखते तथा अपनी भाषा के शब्दों का भारतीय भाषा के अनुसार रूपांतरण कर के उच्चारण करते; जैसे, आज हम भारतीय भाषाओं का उच्चारण बिगाड़ कर, भारत में भी अंग्रेजों के अनुसार उच्चारण कर रहे हैं। उदाहरण स्वरूप: राम को रामा, योग को योगा, वेद को वेदा, शास्त्र को शास्त्रा, राग को रागा, गंगा को गेंजस (Ganges), केरल को केरला, कर्नाटक को कर्नाटका, दिल्ली को डेहली, कोलकत्ता को कैलकटा, मुंबई को बौंबे, चीन को चाइना, रूस को रशिया, लाख को लैख आदि कहने लग गए हैं।
यदि भारत ने इंग्लैंड की तरह विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया होता, तो आज विश्व में अंकल-आंटी आदि अंग्रेज़ी के शब्दों की बजाय चाचा-चाची, मामा-मामी, फूफा-फूफी आदि शब्दों का प्रयोग होना था। अंकल आंटी जैसे शब्दों में तो चाचा-चाचा, मामा-मामी का कोई अंतर ही पता नहीं चलता, जब कि भारतीय भाषा के शब्दों से उन का पूरा अंतर पता चलता है। भारतीय भाषा के भावपूर्ण शब्दों से संबंधों में परस्पर प्रेम और घनिष्टता बढ़ती है।
आजकल सभी मंत्रीगण/राजनेता व अधिकारी: अंग्रेज़ी भाषा में छपे समाचार पत्र ही मुख्यत: पढ़ते हैं एवं उन में छपे समाचारों पर ही विश्वास करते हैं। किसी भी भारतीय भाषा में छपे समाचार पत्र की सूचना को उतनी मान्यता नहीं देते, जितनी मान्यता अंग्रेजी में छपे समाचार पत्र की सूचना को देते हैं। क्योंकि, अंग्रेजी के समाचार पत्र में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समाचार; भारतीय भाषा के समानांतर अधिक विद्वता-पूर्ण व सुंदर ढंग से लिखे होते हैं। क्योंकि, इंग्लैंड का साम्राज्य स्थापित होने कारण, अंग्रेजी भारतीय भाषा से अधिक उन्नत हो चुकी है। लंबे समय तक इंग्लैंड के गुलाम रहने कारण, उत्कृष्ट शैली में ‘अंग्रेजी’ लिखने वाले उत्तम विद्वानों की संख्या भी अधिक है एवं अंग्रेजी में छपने वाले समाचार पत्रों की संख्या भी अधिक है। यदि भारत ने विश्व पर इंग्लैंड की तरह अपना साम्राज्य स्थापित किया होता, तो उत्कृष्ट शैली में ‘भारतीय’ भाषा लिखने वाले उत्तम विद्वानों एवं ‘भारतीय’ भाषा में छपने वाले समाचार पत्रों की संख्या भी अधिक होती तथा विश्व भर के लोग भारतीय भाषा में छपे समाचार पत्र पर छपी सूचना पर ही अधिक विश्वास करते।
यदि भारत ने इंग्लैंड की तरह विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया होता, तो आज इंग्लैंड सहित अधिकत्तर देशों की संसदों (पार्लियामेंट) में भारतीय भाषा में चर्चा होती, वाद-संवाद होते; जैसा कि आज भारत की संसद में अंग्रेज़ी में चर्चा एवं वाद-संवाद हो रहे हैं।
विश्व पर या किसी देश पर अपना साम्राज्य स्थापित कर के, वहाँ अपनी भाषा, मज़हब/धर्म तथा सभ्यता फैलाने का अपराधिक व अनैतिक ढंग: इंग्लैंड के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुआ है। साम्राज्य विस्तार से ही कोई भी भाषा, धर्म तथा सभ्यता सुरक्षित रहती है तथा प्रफुल्लित होती है। साम्राज्य विस्तार किए बिना कोई भी भाषा, धर्म तथा सभ्यता सुरक्षित नहीं रह सकते; प्रफुल्लित होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। सतिगुरु गोबिन्द सिंघ जी ने भी लिखा है “राज बिना नहि धरम चलै है”। इस के साथ ही यह भी एक कटु सत्य है: कम से कम 50% अनैतिकता (क्रूरता, कपट) से ही साम्राज्य स्थापित होता है, स्थापित रहता है तथा साम्राज्य का प्रसार होता है; भले ही समाज इस ढंग को कितना भी अनैतिक तथा अपराधिक मानता है। मनुष्य ने भी तो सभी जीवों से अधिक अनैतिक (पाप कार्य) कर के; क्रूरता, कपट से ही पृथ्वी पर अपना साम्राज्य स्थापित किया है। यदि केवल नैतिकता के शुभ कर्मों से साम्राज्य स्थापित करना संभव होता, तो ससे जैसे शाकाहारी जीव जंगल में शासन करते। फिर सिंह (शेर) को जंगल का ‘सम्राट’ ना माना जाता। इस लिए, साम्राज्य स्थापित करने के लिए क्रूरता, कपट जैसी अनैतिकता करनी अनिवार्य है।
इस लिए, जिस ने भी अपनी भाषा, मज़हब तथा सभ्यता को सुरक्षित कर के प्रफुल्लित करना हो; उसे विश्व पर साम्राज्य स्थापित करना व साम्राज्य स्थापित रखना, अत्यंत आवश्यक है। परंतु, भारत तो ठहरा: दयालु, शांत, सुशील, नैतिक तथा धार्मिक देश। उपरोक्त गुणों का धारणी होने के कारण, भारत ने किसी देश को गुलाम नहीं बनाया; जिस का फल भारत ने स्वयं गुलाम हो कर भोगा है तथा आज तक भोग रहा है। नैतिक व धार्मिक होने के कारण, पूरे संसार को या किसी अन्य देश को गुलाम बना कर, भारत भला अपना साम्राज्य स्थापित क्यों करेगा?
आश्चर्य होता है कि भारत के अधिकतर सम्राटों/नेताओं ने प्रकृति के नियम व अटल सच्चाई को क्यों नहीं समझा एवं क्यों नहीं स्वीकार किया कि केवल नैतिकता के आधार पर हम अपनी भाषा, संस्कृति का पूरे विश्व में प्रचार–प्रसार नहीं कर सकते। जिस किसी भारतीय सम्राट ने इस अटल सच्चाई को स्वीकार कर, किसी अन्य देश पर अपना साम्राज्य स्थापित किया, या विश्व में, जहाँ कहीं भी भारतीय संस्कृति का प्रभाव रहा है; वहाँ आज भी भारतीय भाषा के शब्द प्रचलित है। जैसे: इंडोनेशिया में कभी भारतीय संस्कृति वाले राजाओं ने शासन किया था। जिस कारण, वहाँ बहु-गिनती ‘हिन्दू’ रहते थे। परंतु आज वहाँ बहु-गिनती ‘मुसलमान’ बन चुके हैं। किन्तु, वहाँ के अधिकतर मुसलमान अभी भी, भारतीय भाषा में ही अपने नाम रखते हैं जैसे: सुदर्शन, सीता, अर्जुन आदि। वहाँ की एयरलाइन का नाम भी भगवान विष्णु जी के वाहन ‘गरुड़’ के नाम पर है। वहाँ एक टापू का नाम भी भारतीय भाषा में ‘बाली’ है। यहाँ तक कि वहाँ के एक महिला-राष्ट्रपति का नाम भारतीय भाषा के अनुसार ‘सुकरण पुत्री’ था। भारतीय भाषा में नाम रख कर, वह गर्व महसूस करते हैं; भारतीयों की तरह शर्म नहीं करते।
इसी तरह, थाईलैंड में भारतीय सभ्यता के प्रभाव कारण ही ‘अयोध्या’ नामक शहर है, जो किसी समय वहाँ की राजधानी हुआ करता था। थाईलैंड के राजे के नाम के साथ सम्मान-बोधक विशेषण ‘राम’ लगाया जाता है, जो भगवान राम जी के नाम का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति के प्रभाव कारण ही, विष्णु जी का सब से बड़ा मंदिर ‘अंकुर वाह्ट’ कंबोडिया में है।
तात्पर्य यह है कि विश्व में जहाँ भी जिस देश के राजा/सम्राट का शासन होगा, वहाँ उसी का साम्राज्य स्थापित हो कर, उसी की भाषा व संस्कृति प्रचलित हो जाएगी। उस का साम्राज्य हटने के उपरांत भी, वह प्रभाव लंबे समय तक रहता है; जैसे भारत पर अभी भी मुसलमानों का तथा अंग्रेज़-ईसाईयों की भाषा व संस्कृति का प्रभाव है। यदि भारत के अधिकतर सम्राटों के मन में, विश्व पर साम्राज्य स्थापित करने का विचार पहले नहीं आया; तो अब भारत को विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित करने का संकल्प बना लेना चाहिए। क्योंकि, जिस का विश्व पर साम्राज्य स्थापित होता है; उसी की भाषा प्रफुल्लित हो कर, ‘अंतर्राष्ट्रीय भाषा’ बन कर, बिना अधिक प्रयत्न किए, अपने आप लागू हो जाती है। राज-भाषा बनने के कारण, वह भाषा अपनाना लोगों की मजबूरी बन जाती है; जैसे आज अंग्रेज़ी अपनाना लोगों की मजबूरी बन चुकी है। राज-भाषा की नकल करते हुए, फैशन अनुसार, वह भाषा लोगों की ‘मन-चाही भाषा’ भी बन जाती है।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:- राजपाल कौर +91 9023150008, तजिंदर सिंह +91 9041000625, रतनदीप सिंह +91 9650066108.
Email: info@namdhari-sikhs.com
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शिव मंदिर में मोरारी बापू की पूजा: एक न्यायसंगत दृष्टिकोण

नई दिल्ली : काशी, भारत का आध्यात्मिक केंद्र, जहाँ धर्म, संस्कृति और परंपराओं का सम्मान होता है, वहाँ हाल ही में एक विवाद ने जनमानस में चर्चा जगाई है। प्रख्यात रामचरितमानस के व्याख्याता और आध्यात्मिक गुरु मोरारी बापू, जिनकी पत्नी का कुछ दिन पहले निधन हुआ, उन्होंने काशी के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना की और रामकथा गायन किया। इस घटना को लेकर कुछ लोगों ने विरोध व्यक्त किया, उनका कहना है कि सूतक के समय में धार्मिक कार्य नहीं करने चाहिए। परंतु, यह लेख मोरारी बापू के निर्णय का समर्थन करता है और अन्य संतों के उदाहरणों द्वारा उसकी पीछे के आध्यात्मिक तथा मानवीय पहलुओं को प्रस्तुत करता है।
मोरारी बापू एक ऐसे संत हैं, जिन्होंने छह दशकों से भी अधिक समय से रामचरितमानस के माध्यम से सत्य, प्रेम और करुणा का संदेश विश्वभर में फैलाया है। उनकी कथाओं ने लाखों लोगों के जीवन को प्रेरणा दी है। अपनी पत्नी के निधन के बाद भी उन्होंने अपने आध्यात्मिक कर्तव्य को जारी रखने का निर्णय लिया, जो उनकी निष्ठा और धर्म के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है। हिंदू धर्म में सूतक की परंपरा अलग-अलग समुदायों में विभिन्न तरीकों से निभाई जाती है, और इसका पालन व्यक्तिगत संदर्भ पर निर्भर करता है। मोरारी बापू ने शिव मंदिर में पूजा करके किसी परंपरा का उल्लंघन नहीं किया है; बल्कि, उन्होंने एक संत के रूप में अपने धर्म का पालन किया, जिसमें भगवान की भक्ति और लोगों के कल्याण का समावेश होता है।
हिंदू धर्म में शिव की पूजा मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र को स्वीकार करने का प्रतीक है। शिव, जिन्हें महादेव के रूप में जाना जाता है, वे जीवन और मृत्यु दोनों के स्वामी हैं। हमें यह समझना चाहिए कि सूतक का समयकाल शोक और चिंतन का समय होता है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति भगवान की भक्ति से वंचित रहे।
ऐसा ही एक उदाहरण गुजरात के महान संत नरसिंह मेहता का है। नरसिंह मेहता ने अपने जीवन में अनेक दुख सहे, जिसमें उनके परिवार के सदस्यों का निधन भी शामिल था। फिर भी, वे भगवान कृष्ण की भक्ति में लीन रहे और अपने भजनों द्वारा लोगों को प्रेरणा दी। उनका प्रसिद्ध भजन “वैष्णव जन तो” आज भी मानवता का संदेश देता है। नरसिंह मेहता ने दुख की घड़ियों में भी भक्ति को नहीं छोड़ा, जो मोरारी बापू के निर्णय के साथ समानता दर्शाता है।
दूसरा उदाहरण संत जलारामबापा का है, जिन्होंने गुजरात के वीरपुर में अन्नदान की परंपरा स्थापित की। जलारामबापा ने अपने जीवन में अनेक चुनौतियों का सामना किया, लेकिन उन्होंने कभी भगवान राम की सेवा और लोगों की मदद करना बंद नहीं किया। एक बार, जब उनके एक करीबी संबंधी का निधन हुआ, तब भी उन्होंने अन्नदान जारी रखा, क्योंकि उनका मानना था कि सेवा भगवान की भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है। मोरारी बापू का रामकथा जारी रखना, ऐसी ही भक्ति और सेवा की भावना दर्शाता है।
मोरारी बापू के विरोध के पीछे का कारण कट्टरपंथ हो सकता है, लेकिन, हमें भूलना नहीं चाहिए कि हिंदू धर्म में लचीलापन और व्यक्तिगत आध्यात्मिकता को स्थान है। उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के दौरान शांति का संदेश दिया, उत्तराखंड के बाढ़ पीड़ितों को राहत पहुंचाई,और युवक युवतियों के विवाह के लिए आर्थिक मदद की। इनकी सनातनके प्रति निष्ठा पर संदेह करना हमारी समझ की सीमा दर्शाता है। मोरारी बापू की कथाएँ केवल धार्मिक विधि नहीं हैं, बल्कि वे लोगों को नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन देती हैं। उनके शोक की घड़ियों में भी कथा जारी रखना यह दर्शाता है कि वे व्यक्तिगत दुख को एक तरफ रखकर समाज के हित के लिए कार्यरत रहे। यह एक सच्चे संत की निशानी है, जो दुख को भक्ति और सेवा में रूपांतरित करते हैं। अंत में, हमें मोरारी बापू के निर्णय को समझना चाहिए और नरसिंह मेहता तथा जलारामबापा जैसे संतों के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। विरोध करने के बजाय, उनकी भक्ति और सेवा का सम्मान करें। मोरारी बापू का जीवन एक उदाहरण है कि धर्म केवल नियमों का पालन नहीं है, बल्कि एक भावना है जो मानवता को उन्नत करती है।
अस्वीकरण: उपर्युक्त विचार लेखक के निजी हैं और प्रकाशन की राय को प्रतिबिंबित नहीं करते।
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